कल में बहुत ही आसान सोच के साथ शहर में फोटोग्राफी करने निकला था। मगर जैसे ही मैंने एक दिन भर के थके - हारे मजदूर को अपने बोझे की गठरी कंधे पे लादे घर की और वापस जाते देखा मेरी सारी आसान सोच मुशकिल बन गयी। सबसे पहले तो मैंने उस मजदूर के बजाये उसकी परछाई की तस्वीर ली। बात इत्निसी हे की अब ये परछाई किसी की भी हो सकती हे शायद मेरी भी। मगर ये जो बोझ की गठरी मेरी परछाई में दिख रही हे वो मुझे आईने में तो नहीं दिखती मगर महसूस हर पल होती है। जो गठरी मुझे दिख नहीं रही सिर्फ महसूस हो रही हे उस गठरी में भरा क्या हे ये जानना तो अब बहुत ही आवश्यक हो चूका है। मैंने धुंए का एक लम्बा काश लिया और उस अद्रिशय गठरी को कंधे से उतार कर सामने रखा। धीरे से उस गठरी को खोला और हाथ अन्दर डालने ही वाला था के याद आया की गाडी की चाबी तो मैं गाड़ी में ही लगी छोड़ आया। मैंने खट से गठरी बांधी कंधे पे डाली और गाड़ी से चाबी लेने चल दिया।
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A great photograph is one that fully expresses what one feels, in the deepest sense, about what is being photographed
ReplyDeletejivan ki gadri uthaye chala hun,
ReplyDeletekhud ko hi khud mein chupaye chala hun
do pal ko baithun sochun zara sa,
kyun adrishya bhar se khud ko dabaye chala hun?
ek shaandaar soch, aur khubsurat tasveer ko samarpit kuch panktiyan
saved this image to use in my blogpost for full poem on it
Thank You Cifar Shayar. . . :)
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